ग़ज़ल
दुआ मेरी भी अब हो गई कुबूल है।
हो गई मुझसे शायद कोई भूल है।
जिसने बरसों से मेरा पता न लिया।
आना उसका यहां अब बेफिजूल है।
बज्म में बैठकर मुस्कुराता था जो।
और उसी बज्म का आज मकतूल है.
मैने सोचा था अब वो कभी न मिले।
कामरानी बहुत और वो मशगूल है।
रंज है मुझको उससे मुलाक़ात का।
मैं हूं नूतन सा गुल वो इक बबूल है।
मकतूल-मारा हुआ
कामरानी-कामयाब
मशगूल-व्यस्त
रंज दुःख
©Dr Nutan Sharma Naval
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