जां पर बन आयी 'अज़ाब-ए-आफ़त ना हुई होती ,
काश होता कभी हमको , ये मोहब्बत ना हुई होती ,,
आशिक़ी से हाथ छुड़ा के , भागता फिरता क्या मैं गर ,
दिल निकाल , कर पेश उसे ये चाहत ना हुई होती ,,
कम देता तो बेईमानी ' ज़्यादा अदायगी में हाल-ए-तंग ,
इश्क़ में होता सब ' पर ये हिसाबत ना हुई होती ,,
मोहतरम से बा आला बन आये तो कैसी नुमाइशें ,
नज़र-ए-नुमाइंदगी में ऐसी ये मुनासिबत ना हुई होती ,,
हमको ला के बाज़ार में ' खड़ा कर बेच ही दिया जायें ,
अब दाम हमीं तय कर लें ' ये निलामत ना हुई होती ,,
वो आंख ज़रा नम न हुई, सिफ़र को रखो अश्कों से परे ,
उसकी नज़र को बा रहम ' ये रियायत ना हुई होती ,,
©gaurav nirgure