जाने कैसे कैसे यार मिले, खुदगर्जी के ही बाज़ार मिले | हिंदी शायरी

"जाने कैसे कैसे यार मिले, खुदगर्जी के ही बाज़ार मिले। मुड़ के देखे भी न बेबजह वो, काम पड़े तो सौ सौ बार मिले, चाहा जो मैं जाँच-परख करना, मेरी इज्ज़त तार तार मिले। निकले जो एक दफा इस घर से, वो फिर न कहीं संसार मिले। न उठाया उसने फोन किया तो, मैं सोचा आके इक बार मिले। दो फूल कहा करते थे जिसको, उसमें से ही तो इक खार मिले । खुश रहना है तो भूल उन्हें जा, जिनकी जीत से तुझको हार मिले। ढूँढ़ा है जो 'राज' जमाने में, सच्चे साथी बस दो चार मिले। ©Amit Raj"

 जाने कैसे कैसे यार मिले,
खुदगर्जी के ही बाज़ार मिले।

मुड़ के देखे भी न बेबजह वो,
काम पड़े तो सौ सौ बार मिले,

चाहा जो मैं जाँच-परख करना,
मेरी इज्ज़त तार तार मिले।

निकले जो एक दफा इस घर से,
वो फिर न कहीं संसार मिले।

न उठाया उसने फोन किया तो,
मैं सोचा आके इक बार मिले।

दो फूल कहा करते थे जिसको,
उसमें से ही तो इक खार मिले ।

खुश रहना है तो भूल उन्हें जा,
जिनकी जीत से तुझको हार मिले।

ढूँढ़ा है जो 'राज' जमाने में,
सच्चे साथी बस दो चार मिले।

©Amit Raj

जाने कैसे कैसे यार मिले, खुदगर्जी के ही बाज़ार मिले। मुड़ के देखे भी न बेबजह वो, काम पड़े तो सौ सौ बार मिले, चाहा जो मैं जाँच-परख करना, मेरी इज्ज़त तार तार मिले। निकले जो एक दफा इस घर से, वो फिर न कहीं संसार मिले। न उठाया उसने फोन किया तो, मैं सोचा आके इक बार मिले। दो फूल कहा करते थे जिसको, उसमें से ही तो इक खार मिले । खुश रहना है तो भूल उन्हें जा, जिनकी जीत से तुझको हार मिले। ढूँढ़ा है जो 'राज' जमाने में, सच्चे साथी बस दो चार मिले। ©Amit Raj

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