ओह मुझपर मँडराते बादल! मेरे मन को मथते अरमानों को | हिंदी कविता

"ओह मुझपर मँडराते बादल! मेरे मन को मथते अरमानों को ले लो, और बदले में अपनी जल-राशि बूँदों के रूप में दे दो, और चले जाओ वहाँ, जहाँ मेरी प्रेयसी बैठी है, उसे घेर लेना चारो ओर से, और बरसा देना उसपर, मेरे मन के सारे अरमान को, और बदले में उसकी आँखों से, सारा अश्रु-जल ले लेना, और उससे कहना, तुम्हें सुनने को वह उतना ही आकुल है, जितना आकुल हूँ मैं धरती पर बरसने को। ©Vikram Kumar Anujaya"

 ओह मुझपर मँडराते बादल!
मेरे मन को मथते अरमानों को ले लो,
और बदले में अपनी जल-राशि बूँदों के रूप में दे दो,
और चले जाओ वहाँ,
जहाँ मेरी प्रेयसी बैठी है,
उसे घेर लेना चारो ओर से,
और बरसा देना उसपर,
मेरे मन के सारे अरमान को,
और बदले में उसकी आँखों से,
सारा अश्रु-जल ले लेना,
और उससे कहना, 
तुम्हें सुनने को वह उतना ही आकुल है,
जितना आकुल हूँ मैं धरती पर बरसने को।

©Vikram Kumar Anujaya

ओह मुझपर मँडराते बादल! मेरे मन को मथते अरमानों को ले लो, और बदले में अपनी जल-राशि बूँदों के रूप में दे दो, और चले जाओ वहाँ, जहाँ मेरी प्रेयसी बैठी है, उसे घेर लेना चारो ओर से, और बरसा देना उसपर, मेरे मन के सारे अरमान को, और बदले में उसकी आँखों से, सारा अश्रु-जल ले लेना, और उससे कहना, तुम्हें सुनने को वह उतना ही आकुल है, जितना आकुल हूँ मैं धरती पर बरसने को। ©Vikram Kumar Anujaya

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