औरत पका रही है खिचड़ी मन में दबे विचारों की औरत मा | हिंदी कविता

"औरत पका रही है खिचड़ी मन में दबे विचारों की औरत मांज रही है सपने जो देखे कुंआरेपन में औरत धुल रही है किस्मत जो मैली हो गई है शायद औरत पीस रही है चक्की कर रही चूर चूर अरमानों को औरत कूट रही है गुस्सा अपने अंदर भरा हुआ औरत खिला रही है बच्चे दर बच्चे करके खिलवाड़ अपने जज़्बातों से औरत पी रही है घूँट कड़वा फिर भी मुस्कुरा रही है औरत मुस्कुरा रही है/बना रही है चाय पतिदेव जो लौटे हैं अॉफिस से थके हुए @अजय नेमा"

 औरत
पका रही है खिचड़ी
मन में दबे विचारों की
औरत
मांज रही है सपने
जो देखे कुंआरेपन में
औरत
धुल रही है किस्मत
जो मैली हो गई है शायद
औरत
पीस रही है चक्की
कर रही चूर चूर अरमानों को
औरत
कूट रही है गुस्सा
अपने अंदर भरा हुआ
औरत
खिला रही है बच्चे दर बच्चे
करके खिलवाड़ अपने जज़्बातों से
औरत
पी रही है घूँट कड़वा
फिर भी मुस्कुरा रही है
औरत 
मुस्कुरा रही है/बना रही है चाय
पतिदेव जो लौटे हैं
अॉफिस से थके हुए

@अजय नेमा

औरत पका रही है खिचड़ी मन में दबे विचारों की औरत मांज रही है सपने जो देखे कुंआरेपन में औरत धुल रही है किस्मत जो मैली हो गई है शायद औरत पीस रही है चक्की कर रही चूर चूर अरमानों को औरत कूट रही है गुस्सा अपने अंदर भरा हुआ औरत खिला रही है बच्चे दर बच्चे करके खिलवाड़ अपने जज़्बातों से औरत पी रही है घूँट कड़वा फिर भी मुस्कुरा रही है औरत मुस्कुरा रही है/बना रही है चाय पतिदेव जो लौटे हैं अॉफिस से थके हुए @अजय नेमा

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