शीर्षक- ना जाने कहाँ मैं
ना जाने कहाँ मैं किधर गई हूँ
कुछ रिश्तों मे मैं मिटर गई हूँ
रोना धोना खूब किया मैने जो भी
दिखा अपना उसी से रो लिपट गई हूँ
ना जाने कहाँ मैं किधर गई हूँ..........
हर किसी ने देखो तोडा मुझको
ना जाने कहाँ लाके छोड़ा मुझको
राह नही हैं जहाँ से बापस आने की
ना जाने कौनसी राह पे मोड़ा मुझको
ना जाने कहाँ मैं किधर गई हूँ..........
सबकी आँखों मे मैं खटक रही हूँ
कंकर बन करके मैं करक रही हूँ
फिर भी देखो मैं मौज मे जीती हूँ
सबको जला करके मटक रही हूँ
ना जाने कहाँ मैं किधर गई हूँ..........
वेबस सी मैं जब लाचार बनी थी
सबकी नजरो में मैं खराब बनी थी
अत्याचार सभी का झेला मैने
तब जा करके मैं खूंखार बनी थी
ना जाने कहाँ मैं किधर गई हूँ..........
स्वरचित एवं मौलिक रचना -ज्योति गुर्जर' सेव्या'
©JS GURJAR
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