ये भीड़
मुझे बेगानी लगती है..
पांव धंसे मिट्टी में जैसे,
धुंधली सी..
अपनी कहानी लगती है..
ना छुपी,
ना कभी जाहिर हुई
एक कमी पापा!!
इस ज़माने की खुद्दारी मुझे हमेशा ठगती है..
सच लगता था सब
जब साथ तुम्हारा था,
इस शोर में अब भी कोई आहट
जानी पहचानी लगती है..
वो छाया में रहना तुम्हारी
मुझे सदा भाता था
ये फरेबी दुनिया
प्रासंगिक इसकी कहानी लगती है..
जो पाया ना जा सके फिर से
उसे पाने की चाह सदा जहन में
ये मेरी नादानी सी लगती है
ये भीड़..
मुझे बेगानी लगती है
जकड़ी बेड़ियों में
भ्रमित सी..
अनकही कहानी लगती है।
©Kavita Bhardwaj