तुम आओगे इक रोज़ ... ऋतुराज बसंत के फूलों के ब | हिंदी कविता

"तुम आओगे इक रोज़ ... ऋतुराज बसंत के फूलों के बीच से लेकर, सावन की हर बरसती बूंद में तुम्हें खोजा है, तुम आओगे इक रोज़ बेसुधों की तरह दौड़ते हुए, यही सोच कर इस व्याकुल हृदय को रोका है। तुम्हारी कमी ऐसे मालूम पड़ती है जैसे पर्वतों की तलहटी को सूरज की रोशनी का अभाव है, कोई चोट नहीं है इस हृदय में, फिर भी न जाने ये कैसा घाव है। तुम नहीं हो कहीं मेरी इन कल्पनाओं से बाहर, या इक रोज़ आओगे? आते ही मिलन को आतुर इन नीर भरे नेत्रों में खो जाओगे। मैंने इस हृदय में उपजती हुई हर निराशा को रौंदा है, तुम आओगे इक रोज बेसुधों की तरह दौड़ते हुए, यही सोचकर इस व्याकुल हृदय को रोका है। ©D.R. divya (Deepa)"

 तुम आओगे इक रोज़ ...
   
ऋतुराज बसंत के फूलों के बीच से लेकर,
 सावन की हर बरसती बूंद में तुम्हें खोजा है,
   तुम आओगे इक रोज़ बेसुधों की तरह दौड़ते हुए,
     यही सोच कर इस व्याकुल हृदय को रोका है।
    तुम्हारी कमी ऐसे मालूम पड़ती है जैसे
 पर्वतों की तलहटी को सूरज की रोशनी का अभाव है,
  कोई चोट नहीं है इस हृदय में, 
  फिर भी न जाने ये कैसा घाव है।
तुम नहीं हो कहीं मेरी इन कल्पनाओं से बाहर, या इक रोज़ आओगे?
    आते ही मिलन को आतुर इन नीर भरे नेत्रों में खो जाओगे।
    मैंने इस हृदय में उपजती हुई हर निराशा को रौंदा है,
    तुम आओगे इक  रोज बेसुधों की तरह दौड़ते हुए,
    यही सोचकर इस व्याकुल हृदय को रोका है।

©D.R. divya (Deepa)

तुम आओगे इक रोज़ ... ऋतुराज बसंत के फूलों के बीच से लेकर, सावन की हर बरसती बूंद में तुम्हें खोजा है, तुम आओगे इक रोज़ बेसुधों की तरह दौड़ते हुए, यही सोच कर इस व्याकुल हृदय को रोका है। तुम्हारी कमी ऐसे मालूम पड़ती है जैसे पर्वतों की तलहटी को सूरज की रोशनी का अभाव है, कोई चोट नहीं है इस हृदय में, फिर भी न जाने ये कैसा घाव है। तुम नहीं हो कहीं मेरी इन कल्पनाओं से बाहर, या इक रोज़ आओगे? आते ही मिलन को आतुर इन नीर भरे नेत्रों में खो जाओगे। मैंने इस हृदय में उपजती हुई हर निराशा को रौंदा है, तुम आओगे इक रोज बेसुधों की तरह दौड़ते हुए, यही सोचकर इस व्याकुल हृदय को रोका है। ©D.R. divya (Deepa)

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