ना निकलने दिया एक भी आँसू,
जब वो दूर हमसे जा रहे थे।
एक एक कदम बढ़ाते हुए,
मेरे सपनों को दफ़ना रहे थे।
हम-नवाई के मंजर थे हर कहीं,
बस हम चलते जा रहे थे।
इतनी भी नकारा ना की थी मोहब्बत,
जो धोखे हम ये खा रहे थे।
ना पलट कर देखा उसने एक बार भी,
हम ना नजरें उनसे हटा पा रहे थे।
आंखों में उफनता समन्दर था,
और वो वादे मुझे याद आ रहे थे।
कहते थे धूप हो या फिर हो छांव,
हर सुख दुख में साथ निभाएंगे।
वो सपना था या ये सपना है,
कैसे खुद को हम समझाएंगे।
वो जो फ़ूलों से सहेजे थे सपने,
कैसे उनको हम दफ़नाएंगे?
हंसेगा आलम जब भी देखकर,
कैसे उनको हम बतलाएंगे?
अब ना सीखा किसी से मैंने लिखना,
जाने ज़माना क्या पढ़ लेता है।
जब जब लिखता हूँ मैं अपने दर्द को,
उसे वो अपनी ही कहानी कहता है।
©Sagar Parasher
ना निकलने दिया एक भी आँसू,
जब वो दूर हमसे जा रहे थे।
_Sagar Parasher
31.03.2024