बहुत से ज़ख्म दफ्न है मुझमें। में सबकों मामूली सा न | हिंदी शायरी

"बहुत से ज़ख्म दफ्न है मुझमें। में सबकों मामूली सा नज़र आता हूँ। परेशानी जब हद से बढ़ जाती है। में थोड़ा चिड़चिड़ाता हूँ। आईना साफ़ कर देखों। आमाल आक कर देखो। वाहिद तू ही नहीं जो मुझपे ताने कसता है। सिफर के मायने बदलते है जब वो आगे से पीछे लगता है। तू बातिल में मुझसे बेहतर है । क्योंकि मेरा मिजाज़ कहा सबसे मेल खाता है। ज़ाहिर में कौन बेहतर है वो वक़्त ब वक़्त साबित हो ही जाता है। Shah Talib Ahmed"

 बहुत से ज़ख्म दफ्न है मुझमें।
में सबकों मामूली सा नज़र आता हूँ।

परेशानी जब हद से बढ़ जाती है।
में थोड़ा चिड़चिड़ाता हूँ।

आईना साफ़ कर देखों।
आमाल आक कर देखो।

वाहिद तू ही नहीं जो मुझपे ताने कसता है।
सिफर के मायने बदलते है जब वो आगे से पीछे लगता है।

तू बातिल में मुझसे बेहतर है ।
क्योंकि मेरा मिजाज़ कहा सबसे मेल खाता है।
ज़ाहिर में कौन बेहतर है 
वो वक़्त ब वक़्त साबित हो ही जाता है।

Shah Talib Ahmed

बहुत से ज़ख्म दफ्न है मुझमें। में सबकों मामूली सा नज़र आता हूँ। परेशानी जब हद से बढ़ जाती है। में थोड़ा चिड़चिड़ाता हूँ। आईना साफ़ कर देखों। आमाल आक कर देखो। वाहिद तू ही नहीं जो मुझपे ताने कसता है। सिफर के मायने बदलते है जब वो आगे से पीछे लगता है। तू बातिल में मुझसे बेहतर है । क्योंकि मेरा मिजाज़ कहा सबसे मेल खाता है। ज़ाहिर में कौन बेहतर है वो वक़्त ब वक़्त साबित हो ही जाता है। Shah Talib Ahmed

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