ग़र जो बाटने से कम हो,
वो इज़्ज़त नहीं।
जहाँ शर्म का दायरा हो ,
वो मोहब्बत नहीं ।
जो बेच के मिली हो,
वो दौलत नहीं।
सब मे शामिल ना हो सको।
वो अच्छी सोहबत नहीं।
जो साबित करनी पड़ जाये।
वो कतई शोहरत नहीं।
जो किसी एक कि न हो सके ।
वो औरत नहीं।
जो ज़ुल्म हो जाये किसी मुफ़लिस पर,
वो सही हुक़ूमत नहीं।
ग़र पसंद नहीं बातें हमारी,
मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं।
Shah Talib Ahmed
दस्तक़ देता रहता हूँ ।
मसलन और इत्तेफ़ाक़न आपके अहकाम लिखूं।
मुझे पढ़ने वाले कहते है।
इजाज़त लेकर आपकी , आपके ही फरमान लिखूं।
इस उम्मत की सलामती।
इससे ज़्यादा क्या में अपने अरमान लिखूं।
भटक गए जो राह से उनकी माफ कीजिये।
आपसे क्या छुपा है ,क्या में उनके इल्ज़ाम लिखूं।
लौट आओ मग़फ़िरत के लिए रमज़ान आया है।
वाकिफ़ होके भी ज़मीर को मारने वालों, किस इंतज़ार में हो ?
क्या में पूरी अज़ान लिखूं।
Shah Talib Ahmed
बहुत से ज़ख्म दफ्न है मुझमें।
में सबकों मामूली सा नज़र आता हूँ।
परेशानी जब हद से बढ़ जाती है।
में थोड़ा चिड़चिड़ाता हूँ।
आईना साफ़ कर देखों।
आमाल आक कर देखो।
वाहिद तू ही नहीं जो मुझपे ताने कसता है।
सिफर के मायने बदलते है जब वो आगे से पीछे लगता है।
तू बातिल में मुझसे बेहतर है ।
क्योंकि मेरा मिजाज़ कहा सबसे मेल खाता है।
ज़ाहिर में कौन बेहतर है
वो वक़्त ब वक़्त साबित हो ही जाता है।
Shah Talib Ahmed
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here