ग़र जो बाटने से कम हो, वो इज़्ज़त नहीं। जहाँ शर्म का | हिंदी शायरी

"ग़र जो बाटने से कम हो, वो इज़्ज़त नहीं। जहाँ शर्म का दायरा हो , वो मोहब्बत नहीं । जो बेच के मिली हो, वो दौलत नहीं। सब मे शामिल ना हो सको। वो अच्छी सोहबत नहीं। जो साबित करनी पड़ जाये। वो कतई शोहरत नहीं। जो किसी एक कि न हो सके । वो औरत नहीं। जो ज़ुल्म हो जाये किसी मुफ़लिस पर, वो सही हुक़ूमत नहीं। ग़र पसंद नहीं बातें हमारी, मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं। Shah Talib Ahmed"

 ग़र जो बाटने से कम हो,
वो इज़्ज़त नहीं।

जहाँ शर्म का दायरा हो , 
वो मोहब्बत नहीं ।

जो बेच के मिली हो,
वो दौलत नहीं।

सब मे शामिल ना हो सको।
वो अच्छी सोहबत नहीं।

जो साबित करनी पड़ जाये।
वो कतई शोहरत नहीं।

जो किसी एक कि न हो सके ।
वो औरत नहीं।

जो ज़ुल्म हो जाये किसी मुफ़लिस पर,
वो सही हुक़ूमत नहीं।

ग़र पसंद नहीं बातें हमारी,
मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं।

Shah Talib Ahmed

ग़र जो बाटने से कम हो, वो इज़्ज़त नहीं। जहाँ शर्म का दायरा हो , वो मोहब्बत नहीं । जो बेच के मिली हो, वो दौलत नहीं। सब मे शामिल ना हो सको। वो अच्छी सोहबत नहीं। जो साबित करनी पड़ जाये। वो कतई शोहरत नहीं। जो किसी एक कि न हो सके । वो औरत नहीं। जो ज़ुल्म हो जाये किसी मुफ़लिस पर, वो सही हुक़ूमत नहीं। ग़र पसंद नहीं बातें हमारी, मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं। Shah Talib Ahmed

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