ग़र जो बाटने से कम हो,
वो इज़्ज़त नहीं।
जहाँ शर्म का दायरा हो ,
वो मोहब्बत नहीं ।
जो बेच के मिली हो,
वो दौलत नहीं।
सब मे शामिल ना हो सको।
वो अच्छी सोहबत नहीं।
जो साबित करनी पड़ जाये।
वो कतई शोहरत नहीं।
जो किसी एक कि न हो सके ।
वो औरत नहीं।
जो ज़ुल्म हो जाये किसी मुफ़लिस पर,
वो सही हुक़ूमत नहीं।
ग़र पसंद नहीं बातें हमारी,
मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं।
Shah Talib Ahmed
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