रेत सा जो टिकता है कोई घाव ये गहरा है कोई गम समेटे | हिंदी Poetry

"रेत सा जो टिकता है कोई घाव ये गहरा है कोई गम समेटे जो हम खड़े हैं ये मुस्कान देख हँसता है कोई। भोर घर से जब निकलता बोझ ख्वाबों का ले चलता है कोई छूट जाए सपने तो क्या न छुटे दफ्तर सो भागता है कोई। चेहरे से सिकन को फेंकता माथे से पसीना जैसे पोंछता है कोई कहता है बहुत खुश हूँ क्या खूब झूठ कहता है कोई। मुफ़लिसी न उसकी कोई देख पाता खुद्दार है वो ये कहता है कोई मांड को जब दूध बताकर जब शौक से पीता है कोई। ठोकर पड़े जब सपनों की गठरी को गाँठ और ऐंठता है कोई तिल तिल कर वो जी रहा है जब तिल तिल कर मरता है कोई। भार शौक से उनके सपनों का सर पर अपने सपनों की दुनिया तजता है कोई सुना है वो मुस्कुरातें हैं देख उसको सो अपने चेहरे पर मुस्कान रखता है कोई। ©युगेश"

 रेत सा जो टिकता है कोई
घाव ये गहरा है कोई
गम समेटे जो हम खड़े हैं
ये मुस्कान देख हँसता है कोई।
भोर घर से जब निकलता 
बोझ ख्वाबों का ले चलता है कोई
छूट जाए सपने तो क्या
न छुटे दफ्तर सो भागता है कोई।
चेहरे से सिकन को फेंकता 
माथे से पसीना जैसे पोंछता है कोई
कहता है बहुत खुश हूँ
क्या खूब झूठ कहता है कोई।
मुफ़लिसी न उसकी कोई देख पाता
खुद्दार है वो ये कहता है कोई
मांड को जब दूध बताकर
जब शौक से पीता है कोई।
ठोकर पड़े जब सपनों की गठरी को
गाँठ और ऐंठता है कोई
तिल तिल कर वो जी रहा है
जब तिल तिल कर मरता है कोई।
भार शौक से उनके सपनों का सर पर
अपने सपनों की दुनिया तजता है कोई
सुना है वो मुस्कुरातें हैं देख उसको
सो अपने चेहरे पर मुस्कान रखता है कोई।
©युगेश

रेत सा जो टिकता है कोई घाव ये गहरा है कोई गम समेटे जो हम खड़े हैं ये मुस्कान देख हँसता है कोई। भोर घर से जब निकलता बोझ ख्वाबों का ले चलता है कोई छूट जाए सपने तो क्या न छुटे दफ्तर सो भागता है कोई। चेहरे से सिकन को फेंकता माथे से पसीना जैसे पोंछता है कोई कहता है बहुत खुश हूँ क्या खूब झूठ कहता है कोई। मुफ़लिसी न उसकी कोई देख पाता खुद्दार है वो ये कहता है कोई मांड को जब दूध बताकर जब शौक से पीता है कोई। ठोकर पड़े जब सपनों की गठरी को गाँठ और ऐंठता है कोई तिल तिल कर वो जी रहा है जब तिल तिल कर मरता है कोई। भार शौक से उनके सपनों का सर पर अपने सपनों की दुनिया तजता है कोई सुना है वो मुस्कुरातें हैं देख उसको सो अपने चेहरे पर मुस्कान रखता है कोई। ©युगेश

रेत सा जो टिकता है कोई
घाव ये गहरा है कोई
गम समेटे जो हम खड़े हैं
ये मुस्कान देख हँसता है कोई।
भोर घर से जब निकलता
बोझ ख्वाबों का ले चलता है कोई
छूट जाए सपने तो क्या
न छुटे दफ्तर सो भागता है कोई।

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