एक बार अपने ही शरीर मे घुट के देखो
क्या होता मर के जीना समझ जाओगे एक बार औरत की तरह जीके देखो
दिन भर का वो संघर्ष बस ट्रैन से उतरते वक़्त
गालियां सड़को से गुजरते वक़्त
समाज की वो खोखली रिवाज़ें वो ज़ुबान हमारी बन्द रखती है
भीड़ में वो छूने वाले हाथ जिसकीे गन्द हमारे दिलों दिमाग मे बस्ती है
खुद के सपनो को अपने हाथों से मार के देखो
क्या होता है घुट के जीना समझ जाओगे एक बार औरत की तरह जीके देखो
वो सारी रिवाज जो सपने के सामने अड़ी रहती है
बाजार हो या कॉलज कुछ निगाहें हमारी ओर ही गड़ी रहती है
हर महीने पानी की तरह खून का भाव और पेट का दर्द सहन करके देखो
क्या होता है घुट के जीना समझ जाओगे एक बार औरत की तरह जीके देखो
रवि लाम्बा
©Dr Ravi Lamba
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