दीवार (दोहे)
खड़ी हुई दीवार है, अब अपनों के बीच।
रिश्ते ये ऐसे लगें, जैसे कोई कीच।।
उलझन ही सुलझी नहीं, बिगड़ गये हालात।
खींचा तानी ये करें, देते भी आघात।।
मन मुटाव भी कम नहीं, खड़ी हुई दीवार।
जंग छिड़ी है देखलो, निकल गये हथियार।।
अब सबको ही चाहिए, अपना घर परिवार।
एक साथ मिलकर नहीं, रहने को तैयार।।
कैसी ये दीवार है, होते सब आघात।
बेचैनी भी बढ़ रही, हो दिन या फिर रात।।
कलयुग का ये है समय, चुभा रहे हैं शूल।
अलग हुए जब से वही, तब से सब अनुकूल।।
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देवेश दीक्षित
©Devesh Dixit
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दीवार (दोहे)
खड़ी हुई दीवार है, अब अपनों के बीच।
रिश्ते ये ऐसे लगें, जैसे कोई कीच।।
उलझन ही सुलझी नहीं, बिगड़ गये हालात।
खींचा तानी ये करें, देते भी आघात।।
मन मुटाव भी कम नहीं, खड़ी हुई दीवार।
जंग छिड़ी है देखलो, निकल गये हथियार।।
अब सबको ही चाहिए, अपना घर परिवार।
एक साथ मिलकर नहीं, रहने को तैयार।।
कैसी ये दीवार है, होते सब आघात।
बेचैनी भी बढ़ रही, हो दिन या फिर रात।।
कलयुग का ये है समय, चुभा रहे हैं शूल।
अलग हुए जब से वही, तब से सब अनुकूल।।
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देवेश दीक्षित
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