कैसे...किस्मत की इन आड़ी-टेड़ी लकीरों में उलझ कर भी | हिंदी Poetry

"कैसे...किस्मत की इन आड़ी-टेड़ी लकीरों में उलझ कर भी एक सीधी सी ज़िन्दगी जी जा सकती है। कैसे....तुम पर फेंके गए उन तामाम पत्थरों से भी, खुद का एक आशियाना बनाया जा सकता है। कैसे.... अपने से ज़्यादा, अपनों का ख़याल रखा जाता है। दिन कैसा भी गुज़रा हो तुम्हारा कैसे मुस्कुरा कर घर लौटा जाता है। पापा..... तुम कितना कुछ सिखाते हो। वो सब भी बताते हो, जिससे ये दुनियाँ सारी बेखबर है। इसलिए शायद, मेरे "सुकून" का दूसरा नाम तुम हो। जहाँ खुल कर साँस मैं भर पाती हूँ.... बात बात पर मुस्कुराती हूँ, वो घर ....वो आँगन.... तुम हो। ©Dr Jyotirmayee Patel"

 कैसे...किस्मत की
इन आड़ी-टेड़ी लकीरों में
उलझ कर भी
एक सीधी सी ज़िन्दगी जी जा सकती है।

कैसे....तुम पर फेंके गए
उन तामाम पत्थरों से भी,
खुद का एक आशियाना
बनाया जा सकता है।

कैसे.... अपने से ज़्यादा,
अपनों का ख़याल रखा जाता है।
दिन कैसा भी गुज़रा हो तुम्हारा
कैसे मुस्कुरा कर
घर लौटा जाता है।

पापा.....
तुम कितना कुछ सिखाते हो।
वो सब भी बताते हो,
जिससे ये दुनियाँ सारी बेखबर है।

इसलिए शायद,
मेरे "सुकून" का दूसरा नाम
तुम हो।
जहाँ खुल कर साँस
मैं भर पाती हूँ....
बात बात पर मुस्कुराती हूँ,
वो घर ....वो आँगन....
तुम हो।

©Dr Jyotirmayee Patel

कैसे...किस्मत की इन आड़ी-टेड़ी लकीरों में उलझ कर भी एक सीधी सी ज़िन्दगी जी जा सकती है। कैसे....तुम पर फेंके गए उन तामाम पत्थरों से भी, खुद का एक आशियाना बनाया जा सकता है। कैसे.... अपने से ज़्यादा, अपनों का ख़याल रखा जाता है। दिन कैसा भी गुज़रा हो तुम्हारा कैसे मुस्कुरा कर घर लौटा जाता है। पापा..... तुम कितना कुछ सिखाते हो। वो सब भी बताते हो, जिससे ये दुनियाँ सारी बेखबर है। इसलिए शायद, मेरे "सुकून" का दूसरा नाम तुम हो। जहाँ खुल कर साँस मैं भर पाती हूँ.... बात बात पर मुस्कुराती हूँ, वो घर ....वो आँगन.... तुम हो। ©Dr Jyotirmayee Patel

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