रूह कांपा दि गोरों कि, वह आंधी बन कर आई थी मणिकर | हिंदी कविता

"रूह कांपा दि गोरों कि, वह आंधी बन कर आई थी मणिकर्णिका ज्वाला बन के, वाराणसी से आई थी भगवान नहीं थी यारों वो, झांसी की लक्ष्मीबाई थी तात्या कि वो शिष्य थी, बाबा की मनु पराई थी सन् 1842 में, वो रानी बनकर छाई थी बन झांसी की रानी फिर, गोरी से लड़ी लड़ाई थी भगवान नहीं थी यारों वो, रानी लक्ष्मीबाई थी सन् 1857 गोरों की आफत आई थी जो सामत उनकी लाई थी, वो रानी लक्ष्मीबाई थी अपनों से वह हारी थी, पर गोरों को धूल चटाई थी नींद उड़ी थी गोरों की, जान पे जो बनाई थी, ना काली ना दुर्गा वो, झांसी की लक्ष्मीबाई थी दो धारी तलवार चलाकर, युद्ध भूमि में छाई थी दोनों हाथ में अस्त्र लिए, जैसे काली बन कर आई थी सन् 1858 में, अंतिम लड़ी लड़ाई थी 30 वर्ष की रानी ने फिर खुद की चिता जलाई थी भगवान नहीं थी यारों वो, रानी लक्ष्मीबाई थी ©Deepti Sengar"

 रूह कांपा दि गोरों  कि, वह आंधी बन कर आई थी
 मणिकर्णिका ज्वाला बन के, वाराणसी से आई थी
भगवान नहीं थी यारों वो, झांसी की लक्ष्मीबाई थी
तात्या कि वो शिष्य थी, बाबा की मनु पराई थी
सन् 1842 में, वो रानी बनकर छाई थी
बन झांसी की रानी फिर, गोरी से लड़ी लड़ाई थी
भगवान नहीं थी यारों वो,  रानी लक्ष्मीबाई थी
सन् 1857 गोरों की आफत आई थी
 जो सामत उनकी लाई थी, वो रानी लक्ष्मीबाई थी
अपनों से वह हारी थी, पर गोरों को धूल चटाई थी
नींद उड़ी थी गोरों की, जान पे जो बनाई थी,

ना काली ना दुर्गा वो, झांसी की लक्ष्मीबाई थी
दो धारी तलवार चलाकर, युद्ध भूमि में छाई  थी
दोनों हाथ में अस्त्र लिए, जैसे काली बन कर आई थी
सन् 1858 में, अंतिम लड़ी लड़ाई थी 
30 वर्ष की रानी ने फिर खुद की चिता जलाई थी
 भगवान नहीं थी यारों वो, रानी लक्ष्मीबाई थी

©Deepti Sengar

रूह कांपा दि गोरों कि, वह आंधी बन कर आई थी मणिकर्णिका ज्वाला बन के, वाराणसी से आई थी भगवान नहीं थी यारों वो, झांसी की लक्ष्मीबाई थी तात्या कि वो शिष्य थी, बाबा की मनु पराई थी सन् 1842 में, वो रानी बनकर छाई थी बन झांसी की रानी फिर, गोरी से लड़ी लड़ाई थी भगवान नहीं थी यारों वो, रानी लक्ष्मीबाई थी सन् 1857 गोरों की आफत आई थी जो सामत उनकी लाई थी, वो रानी लक्ष्मीबाई थी अपनों से वह हारी थी, पर गोरों को धूल चटाई थी नींद उड़ी थी गोरों की, जान पे जो बनाई थी, ना काली ना दुर्गा वो, झांसी की लक्ष्मीबाई थी दो धारी तलवार चलाकर, युद्ध भूमि में छाई थी दोनों हाथ में अस्त्र लिए, जैसे काली बन कर आई थी सन् 1858 में, अंतिम लड़ी लड़ाई थी 30 वर्ष की रानी ने फिर खुद की चिता जलाई थी भगवान नहीं थी यारों वो, रानी लक्ष्मीबाई थी ©Deepti Sengar

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