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बची थी जो शेष जिंदगी उसी को विशेष
बनाने के चक्कर में कब यह जीवन
भूत से वर्तमान,वर्तमान से भविष्य
में कहीं खो गया, पता ही नहीं लगा...
तुम्हारा कसकर हाथ पकड़ने की चाह में
नमी जिंदगी.. कब सूखी रेत सी हो
हाथों से फिसल गई पता ही नहीं लगा
न मै..मेँ रही,ना तुम.. तुम रहे
तुम्हारी जो जिंदगी थी मैँ..कब -कैसे - क्यूं
रास्ते का पत्थर बन गई पता ही नहीं लगा...x
कांच के टुकड़ों को क्यूँ हीरोँ का नाम
दे...देकर यूं ही सहेजते रहे हम
जबकि अपना शीशे सा दिल
कब पत्थर हो गया पता ही नहीं लगा..
एक मुलाकात के इंतजार में तुम्हारे ख्यालों को कब
कस्तूरी..मृग.. मन..से जिंदगी..ऐ..रुह में उतार लिया...
पता ही नहीं लगा....
दीवारों को दर्द सुनाते सुनाते तन्हा दिल ने
तन्हा-तन्हा सी जिंदगी में कब..तन्हा..शहर बसा लिया
पता ही नहीं लगा...पता ही नहीं लगा...
©AwadheshPSRathore_7773
#nightthoughts शेष विशेष के जैसे चक्की के दो
पाटों के बीच फंसती यह जिंदगी,किस तरह सादे मनुष्य से उसके जीवन की सारी सादगी छिन लेती है और अंततोगत्वा क्या होता है सभी जानते हैं जीवन के आखिरी पड़ाव पर आकर यही जिंदगी हमसे कुछ ऐसे प्रश्न भी कर डालती हैं की जिनका हम चाह कर भी उत्तर नहीं दे पाते हैं बस यही है इस अनमोल मनुष्य जिंदगी का फलसफा और कुछ भी नहीं......🥱