बरगद से मेरे पिता ,और ठंडी छांव सी मेरी मां का साया
मैं ही नहीं, ये फसाना हर शख्स ने है गाया
जब जब बचपन कि बेफिक्री
मनमौजी हो कर जीना
याद आता है
हर एक शख्स ये फसाना
दोहराता है
किसी की पुकार से खुलती आंखे
रसोई की खुशबू से होने वाला इंतजार
दोस्त यारो का आना जाना
और अपनी जरूरतों की लिस्ट
मां के हाथ में थमाना
क्या दिन थे वो,क्या खूब था वो जमाना
बेफिक्र सी सुबह
और सुकून कि रात का आना
अपने कपड़ों को मां से धुलवाना
और जरूरतों को याद दिलाना
एक बच्चा जीता है इसी सोच में
के उसके मां बाप है कोई ख़ज़ाना
वक्त बीत जाता है
उम्र बढ़ जाती है
जरुरते जब खुद से पूरी करे
तो मां बाप से दूरियां बढ़ जाती है
बड़ी किस्मत वाले है
जिनके मां बाप उनके साथ है
और औलाद का हाथो में हाथ है
ये दुनियां ,ये दुनियादार
ये संबंध ये वफादारी
सीखा के जो जीना सिखाते है
पता नहीं क्यूं सपनो की दुनिया
हमसे छीन कर चले जाते है
सारे ख्वाब धराशाई हो जाते है
बरगद की छांव बड़ी शीतल होती है
इस छांव के जैसे जिंदगी क्यूं नहीं होती है
दुनियां की खूबसूरती को
जो पिता की आंखो से देखा
वो अब नजर नहीं आती
दे दी है सारे कर्तव्यो की पोटली
पर मेरी मां अब नजर नहीं आती...