प्रेम पर ग्रंथ एक लिख दूं या कह दूं अनगिनत किस्से,
प्रेम से इतर क्या है यहां, कितने हैं अनछुए हिस्से।
कोई आंखों से पढ़ता है, कोई होठों से गढ़ता है,
कोई हाथों की नरमी से, दिल की हर बात कहता है।
कोई कहकर भी न समझे, कोई जाने अनकहे ही,
कोई चाहे न रहकर साथ, कोई पूजे बिन मिले ही।
प्रेम की न कोई भाषा, प्रेम की न कोई बोली,
जिसने मन राम बन साधा, सीता बन वो उसकी हो ली।
प्रेम अनवरत बहता झरना, प्रेम पावन गंगा- यमुना,
प्रेम सा कुछ पवित्र न जग में, प्रेम के जैसा दूजा सम ना।
कितना कुछ कह चुके हैं लोग, कितना कहना अभी बाकी,
प्रेम पर कितना कुछ लिख दूं, कितना लिखना अभी बाकी।
प्रेम पर ग्रंथ एक लिख दूं, या कह दूं अनगिनत किस्से,
प्रेम से इतर क्या है यहां, कितने हैं अनछुए हिस्से।।
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©Neel
प्रेम ग्रंथ 🍁