सुबह सिंदूरी, दिन मख़मली, रात ही बैरन होय,
पिया मिलन की आस में, मैं साँसें रही संजोय।
कहा तो, क्या तुम साथ चलोगे, हाथों में ले हाथ,
कभी न मुझसे दूर रहोगे, कर लूँ क्या विश्वास।
मन उलझा है कई चक्र में, क्या बोलूँ क्या छोड़ूँ,
मेरे मन की भाषा पढ़ लो, प्रीत मैं तुझसे जोड़ूँ।
जनम-जनम का बन्धन है ये, आज की प्रीत नहीं है,
जो - दो पल में ही, मिट जाए, ऐसी नियति नहीं है।
सब कुछ कहकर भी- क्यूँ लगता है, बात न पूरी सी है,
समझ सको तो समझ लो - क्यूँ ये, रैन अधूरी सी है।।
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©Neel
जन्मों का बंधन 🍁