दीपावली थी आने वाली घर की चल रही थी साफ सफाई
सब कमरे हो चुके थे साफ अब अन्तिम कमरे की थी बारी
सीढी से ऊपर जाकर ज्यों ही कमरे का दरवाजा खोला
देखकर उसकी अस्तव्यस्त दशा को घबड़ा कर मेरा मन भी डोला
कागज के पुर्जों और तस्वीरों से कमरा पूरा पटा पडा था
मेरे ठीक सामने ही एक लिफाफा फटा पड़ा था
झुककर जैसे ही मैनें उसे उठाया
उससे गिरकर एक तस्वीर मेरी आँखों के सामनें आया
भूल चुका था जिन यादों को वो यादें फिर से उभर आईं
तस्वीर में मुझको मेरी अनारकली नजर जब आई
सहसा ही यादों के पन्ने सारे पलट चुके थे
पानी की बूँदों की माफिक आँखों से आँसू टपक गए थे
मैं उसकी यादों में खोया गुमसुम ऐसे बैठा था
मानो हो वो पास में मेरे मैं संग उसके बैठा था
मीठे मधुर कर्ण प्रिय स्वर उसके कानों में खनक रहे थे
पायल की रूनझुन ध्वनि से दोनों के मन चहक रहे थे
खुले केशुओं की छाया में मन था मेरा विश्राम कर रहा
आँखों ही आँखों में मैं प्यार के था छन्द पढ़ रहा
सहसा ही कानों में मेरे जोरों की आवाज एक आई
क्यों बुत बनकर बैठे हो क्या हो गई पूरी साफ सफाई
-रामजी तिवारी
©Ramji Tiwari
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