मुझे ख़ुदारा ख़ुदग़र्ज़ आशिक औ बेमुरव्वत समझ रही हो, म | हिंदी शायरी

"मुझे ख़ुदारा ख़ुदग़र्ज़ आशिक औ बेमुरव्वत समझ रही हो, मैं फुरक़तों के तमाम बोसे अब इस बदन से उतार दूँगा, मुझे पता है कि कुछ दिनों से तुम्हारी चाहत बदल रही है, मुझे तो मंज़िल नहीं मिलेगी, तुम्हारी मंज़िल सँवार दूँगा!😊 ©अमरेश चित्रांश"

 मुझे ख़ुदारा ख़ुदग़र्ज़ आशिक औ बेमुरव्वत समझ रही हो,
मैं फुरक़तों के तमाम बोसे अब इस बदन से उतार दूँगा,
मुझे पता है कि कुछ दिनों से तुम्हारी चाहत बदल रही है,
मुझे तो मंज़िल नहीं मिलेगी, तुम्हारी मंज़िल सँवार दूँगा!😊

©अमरेश चित्रांश

मुझे ख़ुदारा ख़ुदग़र्ज़ आशिक औ बेमुरव्वत समझ रही हो, मैं फुरक़तों के तमाम बोसे अब इस बदन से उतार दूँगा, मुझे पता है कि कुछ दिनों से तुम्हारी चाहत बदल रही है, मुझे तो मंज़िल नहीं मिलेगी, तुम्हारी मंज़िल सँवार दूँगा!😊 ©अमरेश चित्रांश

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