आज की रचना मित्रों को समर्पित करता हूँ .......
हे मनुज ! औकात अपनी देख ले
प्रकृति के आगे खड़ा लाचार तू ।
बुद्धि बल के अहम में डूबा हुआ
अपनें ही कर्मों से है बीमार तू ।
प्रकृति की अनमोल रचना था कभी
पाप बन बैठा बढ़ा व्यभिचार तू ।
चाँद और मंगल पे जीवन खोजता
धरती पे करता है अत्याचार तू ।
गोली और बारूद पर बैठा हुआ
जीने की है कर रहा मनुहार तू ।
लौट चल फिर प्रकृति माँ की गोद में
हे मनुज । अब खुद पे कर उपकार तू ।
......
.......... अखिलेश कुमार 'रंजन '
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