मै हक और बातिल को नहीं जानता
मसरूफ हूं दुनिया में सच नहीं जानता।
मेरी ही बस्ती में मेरा कातिल रहता
अंधा हूं जो मै उनको नहीं पहचानता।
मेरे हक में उठती आवाज नहीं सुनता
कौम के लिए लड़नेवालों को नहीं जानता।
क्यों ख़ामोश हूं मै ये नहीं जानता
मेरे ही कातिल को मै नहीं पहचानता।
मेरे दुश्मन ही दोस्त बन बैठे मै नहीं जानता
कौन खंजर मारेगा मै उसे नहीं जानता।
कौम के शहीदों को मै नहीं जानता
और कुरदोग्लो को नहीं पहचानता।
बुलाता है मुआज्जीन तो मै नहीं सुनता
अज़ान बुलाती है तो मै नहीं जाता।
सच ये है मै मेरा इस्लाम नहीं जानता
क्यों की मै पढ़ना नहीं जानता।
मेरे ही कौम से कई कलाम बने ये मै नहीं जानता
मसरूफ हूं दुनिया में मै खुद को नहीं पहचानता।
मिटती हुई तारीख नहीं पहचानता
क्यों की मै पढ़ना नहीं जानता।
इतनी सारी गलतियां है पर मै नहीं मानता
क्यों की मै कलम की ताकत नहीं जानता।
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