रिश्तों को पोशाक समझने वालों, एक दिन पोशाक नही होगा बदन पे।
पोशाक भी साले आज कल इतराने लगे,
रिश्तों को नई पोशाक दिखाकर जलाने लगे।
वो रिश्ते जो कभी रूह से हुआ करते थे,
वो भी आज नई पोशाक की तलाश में मंडराने लगे।।
रिश्ते जो एक पोशाक को रूह से लगाए रखते थे,
कम्बख़्त वो भी नई पोशाक के लिए पैसे बचाने लगे।
ये नई पोशाकें न जाने क्यों इतना इतराती है..
ये भी तो कुछ दिन बाद पुराने होकर उतारे जाने है।
आखिर में ये सब बिन पोशाक के नज़र आते है,
रिश्तों की दुनिया में टूटे और नंगे बदन रह जाते है।
रिश्ते जो आज भी रूह से निभाए जाते है,बमुश्किल पाये जाते है,
लेकिन वो ही तो हमेशा खुश नज़र आते है।।
रचना सम्पादन
(विजेंद्र प्रताप) (अंकित दुबे)
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