प्रेमी
मै तेरा हूं,तुम मेरी हो कहने में अचरज क्यों लगती है
कहता लाख तुमसे हूं,लगता है तुम न सुनती हो।।
तेरी नजरों में फेर है,या नजर फेरने के लिए चश्मा लगाती हो
मै फिरा बैठा हूं तेरी नज़र में,फिर देखकर नजरे क्यों झुकाती हो
तुम्हारे शर्माने की अदा है कोई,या सच में देखकर शर्माती हो
क्या वजह है बातो को खत्म कर देती हो शुरू करने से पहले,प्यार ही क्यों करती हो जब इतना लजाती हो।।
शर्म भी शरमा जाती है,लज्जा खुद लजा जाती है
जब जुल्फे झटकते ही इतना इतराती हो।।
प्रेमिका
तुम छोड़ न दो कहीं बीच राह में,बस यही बात खटकती है
कहना तो मैं भी बहुत कुछ चाहती,इसी डर से हर बात अटकती है।
लज्जा और शर्म आभूषण हैं मेरे,इसलिए मेरे पास फटकती है
देखते है टूटते वादें और कसमें,बस यही बात मेरे मन में मचलती है।
कोई ला दो दवा या करा दो इलाज,मिलने से पहले छूटने की बात खटकती है।।
©Poet Kumar Alok
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