कांच को कभी टूटते हुए देखा है?
किस खनकती आवाज़ में खुद को बिखेरता है,
किस तरह किश्तों में अपनी पहचान लिए घूमता है,
किस तरह ईमान का बाज़ार होते देखता है,
खुद को इतना आसान बनाना इतना आसान है क्या?
कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है,
सहजता से सरलता को समीप लाने में,
कोई टूटा हुआ पहलू इतना मज़बूत कैसे हो सकता है,
मुझे तो शक है कहीं कोई मिलावट ना कर दे,
लेकिन फिर सोचता हूं,
अत्यंत तीव्र गति को मोड़ने वाला,
हर रंग को बेबाकी से बताने वाला,
हर तस्वीर को उसका अस्तित्व दिखाने वाला,
अनंत ब्रम्ह का इकलौता सूचक,
ना तो मिट सकता है और ना ही बिक सकता है,
हालांकि निशा की कोशिशें भी सराहनीय है।
प्रकृति की भरपूर कोशिश को,
प्रकृति के सिरहाने छोड़ देना बेहतर है,
इतना प्यार भी शायद वही मिलता हो उसे।
©Ehsaasnama(Shivam Singh)
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