सगाई नहीं हुई.. एक व्यंग्य कविता
खबरों में था, नज़रों में था,
नक्षत्रों में था, लग्नों में था,
अपनों में था, फिर भी;
सगाई नहीं हुई !
रंगीन था, हसीन था,
प्रवीण था,बेहतरीन था,
ताज़ातरीन था, फिर भी;
सगाई नहीं हुई !
उस भ्रमित परी को,
परिवार नहीं, होशियार नहीं,
जानदार नहीं, शानदार नहीं,
प्यार नही, दुलार नहीं,
एक ग़ुलामाना..,
कुमार चाहिए जो;
माँ बाप से दूर हो,
घरेलू मजदूर हो,
ख़र्चे में मशहूर हो,
शहरी नूर हो,
मासूम खजूर हो,
कुंवारा सा मजबूर हो,
बेसबब चकनाचूर हो !
मांगों में, खामियों में,
अपर्याप्त अंतर था,
भयप्रद तृष्णा से बच गया;
सगाई नहीं हुई !
*(ग़ुलामाना - ग़ुलाम जैसा)
डॉ आनंद दाधीच 'दधीचि'
©Anand Dadhich
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