एक शोर दबा है रात के इन सन्नाटों में
शाम के सिरहाने तले गूंजने की फिराक में,
और भी रोशन हो गया है अंधेरा
लौ कम पड़ गयी है शायद चराग़ में,
रात ढले तो बरसों हो गये फिर क्यों
दूर तलक रोशनी का नामोनिशां नहीं,
चारों ओर भय का माहौल मालूम होता है
नफरत ने पैर पसारा है, कहीं भी फ़िज़ा नहीं,
ठोकर लगी तो पता चला मोम क्या पत्थर क्या
अब के मरहम न लगाया तो घाव ना बन जाये,
पत्थर उछाला है कीचड़ में छीटें लाज़मी हैं
धो लो कमीज़ इससे पहले की दाग ना बन जाये!।।
@SuSHiL
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