बीत गई, रातें कई
कई कल्प सा गुजरा दिन।
मैं तुमको चाहूं, चाहता रहूं,
कैसे संभव है तुम बिन।।
होकर के खड़ा गंगा तट पर
बस समय बिताऊं लहरे गिन।
मैं तुमको सोचूं,सोचता रहूं,
कब तक ये संभव है तुम बिन।।
निशा की घोर घनेरी में,
उस छाया की है तलाश हमें।
एक पल का भी जुगनू बनके,
उस छटा को छांट दिखाए दिन।।
मेरे पतित प्रेम का अतिशय तुम,
मेरे ख्वाब गीत का अलंकार।
मेरे जीवन-लेखनी का व्याकरण,
तुम हो समस्त कविता का सार।
तुमसे जन्मा मेरा प्रेम राग,
उन हसरतों का तुम हो आधार।
जहां शब्द खत्म होते तुम पर
तुम गहरे मन का हो विचार।।
सब लिखता मैं जब होती तुम,
फिर से लिखना अब नहीं मुमकिन।
आशा की उषा अब ढलने लगी,
किरदार बदलना हुआ कठिन।
कैसे चाहूं, कब तक सोचूं,
सब कैसे संभव है तुम बिन।।।
©Vishwas Pradhan
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