"घर "
वो माँ के हाथ का खाना कहाँ खा पाता हूँ,
बस भागते भागते कचा पका खाकर दौड़ जाता हूँ,
बस जरूरतें पूरी करता हूँ कमाकर,
वो पहले जैसी बाबा से जिद्द कहाँ कर पाता हूँ,
जब सपने थे उड़ने के आसमा छूने के,
घर मे था मे जब तक घर कैद सा लगता था,
अब जब प्यार हुआ घर से तो कहाँ महीनो तक घर जा पाता हूँ,
अच्छा कमाता हूँ, खाता हूँ, मौज उड़ाता हूँ,
यही दिलासा देकर तो में इस नोकरी की कैद मे ख़ुद को रोक पाता हूँ,
ख़ुद को फिर भी रोक नहीं पाता हूँ,
हाँ दिन में एक बार तो सपने मे मैं घर जाता हूँ,
एक बार तो सपने मे मैं घर जाता हूँ...
Ravin...
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