||सामाजिक रंगमंच||
टांग खींचना, खींच कर पटक देना
आम बात है,
गिरना, उठना, फिर से गिर कर उठना,
ये कहाँ आसान है।
बाधाएं तो आएंगी, जाएंगी,
मनोबल को तोड़ना चाहेंगी।
पर्वतारोही की छोटी सोंच नहीं,
उचक्के टांग अड़ाने से बाज आएंगे नहीं।
हंसना,रोना, रोते-खिलखिलाना,
आम बात है,
कंधों पे हाथ रखना, हाथ रख कर सद्भावना देना,
ये कहां आसान है।
ये शक्ति जो तुम्हे वरदान है,
उठ आवाज़ अब बुलंद कर।
मौन धारक को लोग गूंगा समझते हैं,
उठ अब तपस्या का प्रचंड वेग सामर्थ्य कर।
कार्य आरंभ करना, आरंभ कर प्रभुत्व होना,
आम बात है,
पर सामाजिक गतिविधियों को कायम रखना,
ये कहाँ आसान है।
समंदर में डूबते हुए नौका को,
आज नाविक की जरुरत है।
जिसने दिया तुझे मान-सम्मान,
आज उसे पूर्तिकर की जरुरत है।
भीड़ इकट्ठा करना, फिर तितर-बितर करना,
आम बात है।
भीड़ में छोटे-बड़ों को अपना मानना, सम्मान देना,
ये कहाँ आसान है।
समय का पहिया फिर से घूमेगा,
दो-धारी तलवार को वो चूमेगा।
अनभिज्ञ होकर चुप्पी साधे तुम,
कटु सत्य को अब वो प्रत्यक्ष लाएगा।
©प्रशांत कपसिमे
14/06/20
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