naveen godiyal

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#HathrasRapeCase

hum hu gunahgaar hain #HathrasRapeCase

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निर्भया शर्मशार थे हम तब भी, हम शर्मशार आज भी हैं। मानवता की हैवानियत पे जाने क्यूं लाचार आज भी हैं। बेसुध से हम सोएं पड़े हैं, सुध कहां ले पाए हम कभी, बेटियों पर नृशंसता से होते जघन्य बलात्कार आज भी हैं। शर्मसार थे तब भी......... बुलबुल सी चेहकती थी वो, कब उसने यह सोचा होगा। दर्द भी रोया होगा, जब उन गिद्धों ने उसको नोचा होगा। उसकी चीखें दब के रह गई उन अमानुषो के हाथो में, निर्वस्त्र, बेजान बच्ची ने, कैसे अंतहीन दुख भोगा होगा। कहां बदल पाए घर्णीत समाज के गिरते विचारों को, बेटियों के खून से लथपथ लिखा समाचार आज भी है। शर्मशार थे तब भी.......... पूछती है बेटी, कौरव खड़े है, केशव भी तो दिखलाओ, भीम भी बने कोई और उनकी जांघे जरा उखाड़ लाओ। परस्त्री के हरण पे, पूरी लंका ढहाने वाले राम कहां है, पुरखो से मिली न्यायव्यस्था, सोई क्युं है उसे जगाओ। बाबा इससे तो अच्छा था भूर्ण में ही हत्या कर देते, तुम्हारे इस अन्नेतिक दुनिया में व्यभिचार आज भी है। शर्मसार थे तब भी............ देवी जैसे पूजते हो तो बताओ, मेरा वो सम्मान कहां है। बाबा सबसे पूछो ना, तुम्हारी वो नन्ही सी जान कहां है। केहदो इनको बेटियों के कभी अभिशाप नहीं लेते, कैसे जन्म लूं फिर से, सुरक्षित वो मेरा हिंदुस्तान कहां है। निरुत्तर सा बाप खड़ा असहाय समाज को कोस रहा, हम गुनहगार तेरे कल भी थे, हम गुनहगार आज भी है। शर्मसार थे तब भी........... चरमराती सुरक्षा व्यवस्था, कानून की हालत लचर रही। सियासत बदली, पर यह दोनों मठाधीश के नए घर रही। बचाने अस्पताल भी दौड़े, पर वहां भी परछाई इनकी थी, गुड़िया हाथों में तड़पी थी, वहां खाली मगर बिस्तर रही। तेरे कुछ अधिकार नहीं है, तू परियों के देश में बस जा, दरिंदों के लिए कल भी थे और मानवाधिकार आज भी हैं। शर्मशार थे तब भी............ - नवीन गोदियाल ©naveen godiyal

#Stoprape  निर्भया शर्मशार थे हम तब भी, हम शर्मशार आज भी हैं।
मानवता की हैवानियत पे जाने क्यूं लाचार आज भी हैं।
बेसुध से हम सोएं पड़े हैं, सुध कहां ले पाए हम कभी,
बेटियों पर नृशंसता से होते जघन्य बलात्कार आज भी हैं।
शर्मसार थे तब भी.........
बुलबुल सी चेहकती थी वो, कब उसने यह सोचा होगा।
दर्द भी रोया होगा, जब उन गिद्धों ने उसको नोचा होगा।
उसकी चीखें दब के रह गई उन अमानुषो के हाथो में,
निर्वस्त्र, बेजान बच्ची ने, कैसे अंतहीन दुख भोगा होगा।
कहां बदल पाए घर्णीत समाज के गिरते विचारों को,
बेटियों के खून से लथपथ लिखा समाचार आज भी है।
शर्मशार थे तब भी..........
पूछती है बेटी, कौरव खड़े है, केशव भी तो दिखलाओ,
भीम भी बने कोई और उनकी जांघे जरा उखाड़ लाओ।
परस्त्री के हरण पे, पूरी लंका ढहाने वाले राम कहां है,
पुरखो से मिली न्यायव्यस्था, सोई क्युं है उसे जगाओ।
बाबा इससे तो अच्छा था भूर्ण में ही हत्या कर देते,
तुम्हारे इस अन्नेतिक दुनिया में व्यभिचार आज भी है।
शर्मसार थे तब भी............
देवी जैसे पूजते हो तो बताओ, मेरा वो सम्मान कहां है।
बाबा सबसे पूछो ना, तुम्हारी वो नन्ही सी जान कहां है।
केहदो इनको बेटियों के कभी अभिशाप नहीं लेते,
कैसे जन्म लूं फिर से, सुरक्षित वो मेरा हिंदुस्तान कहां है।
निरुत्तर सा बाप खड़ा असहाय समाज को कोस रहा,
हम गुनहगार तेरे कल भी थे, हम गुनहगार आज भी है।
शर्मसार थे तब भी...........
चरमराती सुरक्षा व्यवस्था, कानून की हालत लचर रही।
सियासत बदली, पर यह दोनों मठाधीश के नए घर रही।
बचाने अस्पताल भी दौड़े, पर वहां भी परछाई इनकी थी,
गुड़िया हाथों में तड़पी थी, वहां खाली मगर बिस्तर रही।
तेरे कुछ अधिकार नहीं है, तू परियों के देश में बस जा,
दरिंदों के लिए कल भी थे और मानवाधिकार आज भी हैं।
शर्मशार थे तब भी............
- नवीन गोदियाल

©naveen godiyal

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मुझ अबोध बालक का पहला हिंदी अक्षर मां था। फिर जैसे बढ़ता गया, हिंदी ही मेरा सारा जहां था। सहसा मानसपटल पे छा गई हिंदी कि सुंदर फुलवारी, तद्भव, तत्सम और देशज शब्दों से महके हिंदी प्यारी। सुबह के किरणों सी और शाम की सुरमई सी हिंदी, हिंदी इतनी रची बसी है देखो, पीहू भी गाए डारी डारी। लिपि का अनुवाद है हिंदी, संस्कृत का प्रसाद है हिन्दी, जो कभी ना खत्म हो सके, वो भक्त प्रहलाद है हिन्दी। स्वछंद सी बहती है हिंदी, कल कल कर कहती है हिंदी, धरती के एक बड़े भूभाग का मर्यादित संवाद है हिन्दी। बोलियों की बेजोड़ श्रंखला, जगह जगह पर हैं फैली, अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, भोजपुरी, मालवी, बुंदेली, हरयाणवी,राजस्थानी सी,पंचपरगनिया,छत्तीसगढ़ी सी, नागपुरी,खोरठा,गढ़वाली,कुमाऊनी,मगही और बघेली। बोली भाषाओं के विस्तार का भी विस्तार है हिन्दी, अनगिनत अनुप्रासो से सुसजित अलंकार है हिन्दी। हिंदी से ही प्रेम परिभाषित, हिंदी दर्द की आवाज, भारत खंड की शोम्यता का अटल आधार है हिन्दी। किसी राज्य की राजभाषा, कहीं वो हक से वंचित है। अपने ही देश में देखो, हालत उसकी क्यूं कुंठित है। परिवेश - परिधान बदला अब भूल बैठे हैं हिन्दी को। इस व्यसायी करन में, हिंदी डूब ना जाए मन चिंतित है। इसलिए कहता हूं, अब हर संज्ञान तुम्हारा हिंदी हो। पढ़ो सारी भाषाएं, पर मन में ध्यान तुम्हारा हिंदी हो। हिंदी तुम्हे पुकार रही है, उसकी अब सुध तुम ले लो। पुस्तकों तक ना रहे सीमित,अनुष्ठान तुम्हारा हिंदी हो।

#Hindidiwas  मुझ अबोध बालक का पहला हिंदी अक्षर मां था।
फिर जैसे बढ़ता गया, हिंदी ही मेरा सारा जहां था।

सहसा मानसपटल पे छा गई हिंदी कि सुंदर फुलवारी,
तद्भव, तत्सम और देशज शब्दों से महके हिंदी प्यारी।
सुबह के किरणों सी और शाम की सुरमई सी हिंदी,
हिंदी इतनी रची बसी है देखो, पीहू भी गाए डारी डारी।

लिपि का अनुवाद है हिंदी, संस्कृत का प्रसाद है हिन्दी,
जो कभी ना खत्म हो सके, वो भक्त प्रहलाद है हिन्दी।
स्वछंद सी बहती है हिंदी, कल कल कर कहती है हिंदी,
धरती के एक बड़े भूभाग का मर्यादित संवाद है हिन्दी।

बोलियों की बेजोड़ श्रंखला, जगह जगह पर हैं फैली,
अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, भोजपुरी, मालवी, बुंदेली,
हरयाणवी,राजस्थानी सी,पंचपरगनिया,छत्तीसगढ़ी सी,
नागपुरी,खोरठा,गढ़वाली,कुमाऊनी,मगही और बघेली।

बोली भाषाओं के विस्तार का भी विस्तार है हिन्दी,
अनगिनत अनुप्रासो से सुसजित अलंकार है हिन्दी।
हिंदी से ही प्रेम परिभाषित, हिंदी दर्द की आवाज,
भारत खंड की शोम्यता का अटल आधार है हिन्दी।

किसी राज्य की राजभाषा, कहीं वो हक से वंचित है।
अपने ही देश में देखो, हालत उसकी क्यूं कुंठित है।
परिवेश - परिधान बदला अब भूल बैठे हैं हिन्दी को।
इस व्यसायी करन में, हिंदी डूब ना जाए मन चिंतित है।

इसलिए कहता हूं, अब हर संज्ञान तुम्हारा हिंदी हो।
पढ़ो सारी भाषाएं, पर मन में ध्यान तुम्हारा हिंदी हो।
हिंदी तुम्हे पुकार रही है, उसकी अब सुध तुम ले लो।
पुस्तकों तक ना रहे सीमित,अनुष्ठान तुम्हारा हिंदी हो।

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