यु तो कभी मैं अकेला नही हुआ करता था
कभी होता था साथ मेरे पेड़ पौधों का साया,
तुम क्या समझोगे मेरी दर्द-ए-दास्तान
तुमने ही तो बदली है मेरी यह काया,
दिख रहे हैं आज कहीं खुले मैदान
तो कहीं बन रहें ऊँचे ऊँचे मकान,
दूर दूर तक ढूंढो तुम मुझे अब
पर न मिलेगा घने जंगलों का निशान,
कभी काट कर तो कभी आग लगाकर
तुम कर रहें प्रकृति का काम तमाम
देखो इंसानो से मिला मुझे ये कैसा इनाम?
छीनकर घर बेजुबानों का
घर खुद का सवार रहे हो
किस वहम में हो तुम जुबाँ वालों,
खुद ही खुद का संसार उजाड़ रहे हो,
सुनामी हो या हो बीन मौसम बारिश
अब न मिलने वाली तुम्हें प्रकृति की आशीष....
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