अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक रचना
दीप्तियाँ सीप की ..!
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आरती हो साँझ की तुम , भोर की तुम हो वंदना
वेदना के नग चढ़ी तुम , उल्लास की संवेदना ।
संग्राम का इक नाम तुम , संघर्ष की पराकाष्ठा
पी गरल धीरज रखा नित , कर उम्मीद की प्रतिष्ठा ।
तुम जगत आवेग नारी , हो सकल सृष्टि पे भारी
जग नियंता की तुम्ही हो , श्रेष्ठतम इक चित्रकारी ।
ख़ामोशी में हो मधुरम , गीत या संगीत कोई
या नभ से उतरी चपला , चंचला मनमीत कोई ।
माँगा नहीं अपने लिए , घट सुधा का पान तुमने
योगिनी त्रिविध रूप में , चाहा न गुणगान तुमने ।
अनंत धार प्रेरणा की , अवलियाँ तुम नेह दीप की
ज्यूँ मोतियों से झाँकती , दीप्तियाँ हो तुम सीप की ।
इंद्र के ज्यूँ चाप में हो , तुम रंग सातों हों भरे
और अमा के तम सारे , जैसे तुम्ही से हो डरे ।
तुम सृजन हो प्राणियों का , हो सकल ये सृष्टि तुम ही
विश्वास की गहरी नदी , देवी आदि दृष्टि तुम ही ।
तुम तृषा औ तृप्ति तुम ही , प्रश्न तुम्ही प्रतिभाषा हो
ममता श्रद्धा आशा तुम , जीवन की परिभाषा हो ।
✍️ महेश पंचाल 'माही' (०८.०३.२०२०)
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