मैं अपना जीवन तन्हाई में जी रहा हूँ..,
इसलिए आज क़ब्रिस्तान में बैठ के पी रहा हूँ...
बाहर तो सब स्वार्थ में जी रहे हैं..,
क्या अपने क्या पराये सब एकदूसरे का खून पी रहे हैं...
वहां सब रिस्ते नाते भाईचारा खो रहे हैं..,
चलो अच्छा है यहां तो सब सो रहे हैं...
खामोश हैं सब यहाँ पत्थरों के नीचे पत्थरों की तरह..,
वहां तो सब चले फिरते पत्थर हो रहे हैं..।
©Amit (anmol)
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