चेहरे पर जब भी मेरे, मुस्कान नहीं पाते है
गैर तो गैर अपने भी मुझे, घमंडी बताते है
दर्द दिल का सुनने न बैठे कोई
ख़ुद अपनी भड़ास निकाल के, मुझपे इल्ज़ाम लगाते है
उनसे अलग नहीं हूं मैं भी, हालात लगभग एक से है
व्यस्त तो वो भी रहते है, पर मुझे ही व्यस्त बताते है
हक है उनका मुझसे लड़ने का, कुछ भी कहने का
इसलिए बिना सोचे कुछ भी कह बोल जाते है
हक तो दिल में झांकने का भी है, फिर
क्यों नहीं झांकते दिल में और मुझे समझ नहीं पाते है
वे परेशान है अपनी जिंदगी से तो कौन खुश है यहाँ
ये हकीक़त से मुह मोड़ना चाहते है
ख़ुद ही सह रहे सारे ग़म है और
उनके आगे सबके ग़म कम है, ये जताना चाहते है
साथ चाहता हूं जिंदगी में सबका, तन्हा तो जाना ही है
कुछ लोग लड़ना-झगड़ना और अकेला रहना चाहते है
और मैं खुल के जीना चाहता हूं जिंदगी, सभी के संग
और कुछ लोग हर दिन अकेले घुट कर मरना चाहते है
✍️ सूरज कुमार "प्रौढ़ कलम"
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