अब हम सर को उठाने निकले हैं
हाँ हम रेगिस्ताँ में दरिया बहाने निकले हैं
तू देख और ज़ी भरके हँस, जो तू सोच भी ना सका
हम उस मुकाँ को पाने निकले हैं
हाँ हम अब सर को उठाने निकले हैं
अनेकों संकटों से घिर रहा है ये समा
हम इस सेवा में हाथ बटाने निकले हैं
हाँ अब हम सर को उठाने निकले हैं..
हम उस मुकाँ को पाने निकले हैं
धूल-ए-निशाँ को छुपाने निकले हैं
गर्दिश-ए-बादल क्या कर लेंगे गहराकर
हम आशमां-ए-धूप खिलाने निकले हैं
लाज़िम हैं राहें, आशां नहीं अपनी
थकेंगे मगर हम रुकेंगे नहीं पर
हसेँगे जो हारे हुए हैं भी हमपर
हम रेगिस्ताँ में दरिया बहाने निकले हैं
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