मैं सवाल हूँ ऐसे कई उलझनों का
जिनका जवाब होते हुए भी मैं लाचार हूँ।
मैं सिर्फ याद हूँ कुछ वाकयों का जिनको
संभालने में मैं बेज़ार हूँ।
क्या सही क्या गलत है मेरा, मैं नहीं जानता,
तुम्हारा घर जानता हूँ, रास्ता नहीं जानता।
ज़हर संभालना मेरी आदत है,
राख बन जाना मेरी किस्मत।
इनके बीच की ज़िंदगी का हिसाब मैं नहीं जानता।
कतरा भी अगर पर जाए तुम्हारा तो मैं बह जाऊँगा।
इधर तुम्हारा हाथ हटा, उधर मैं ढह जाऊँगा।
गलत हूँ काफी जगहों पर, पर हूँ तो मैं भी इंसान ही,
अपना हाथ रखो या खत्म करो मुझे, आखिर तुम हो तो भगवान ही।
©Ananta Dasgupta
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