परिधानों से लाज ढाँपती
नज़रों में छुप जाती थी,
लज्जा बसती थी आँखों में
मन ही मन सकुचाती थी,
पर्दे के पीछे का सच भी डर की जद में सिमटा था,
लोक लाज के डर से नारी अक्सर चुप रह जाती थी,
बचपन का वो अल्हड़पन दहलीज जवानी की चढते,
खेतों की मेड़ों पर चलती इठलाती बलखाती थी,
सावन में मदमस्त नदी सी चली उफनती राह कभी,
देख आईने में ख़ुद को नटखट कितनी शर्माती थी,
प्रेम और विश्वास अडिग वादे थे जीने मरने के,
रूप सलोना फूलों सा कितनी सुंदर कद-काठी थी,
माँ बाबूजी भैया भाभी सबके मन में रची-बसी,
सखियों के संग हँसी ठिठोली मिलने से घबराती थी,
भावुक हृदय सुकोमल काया मन से भोली थी 'गुंजन',
बात-बात पर नखरे शोखी नयन अश्रु छलकाती थी,
---शशि भूषण मिश्र 'गुंजन'
प्रयागराज उ •प्र •
©Shashi Bhushan Mishra
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here