दस-दस दिन का खेल बना है,बाप यहाँ परिवर्तन में।
ऐसा प्यार दिखाते हैं जी,घाव बने हैं गर्दन में।।
जब जाती है मम्मा ऊपर,भाव यही हो जाते हैं।
आज बना फुटबाल पिता है,पुत्र भाव खो जाते हैं।।
ऐसे बैसे जाने कैसे,जीवन जीना होता है।
रही जिंदगी साथ न उसके,सारे सुख ही खोता है।।
आधा अंग चला जब जाता,बाकी का क्या होगा जी।
आधा जीता आधा मरता,दुखता फोड़ा भोगा जी।।
जो तानी ऊँची दीवारें,आज गिरी सी लगती हैं।
जहाँ नाचती रहती खुशियाँ,आज काटने भगती हैं।।
भाव लुटाये सब कुछ बाँटा,आज बंटा अधिकार में।
जो बाँटा था नहीं मिल रहा,कहीं कमी थी प्यार में।।
सब कुछ सब कुछ था उनका जी,आगे भी होगा भाई।
जाने से पहले ही उसने,क्यूँ हमसे मुक्ती पाई।।
चलो मान लो परिवर्तन को,तो ही सुख मिल पायेगा।
रहो अकेले चलो अकेले,परिवर्तन ना खायेगा।।
©Bharat Bhushan Jha Bharat
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