Rudra Pratap Singh

Rudra Pratap Singh Lives in Ballia, Uttar Pradesh, India

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#होली #Festival #घर #Holi  मुझे घर बनाने; घर से दूर निकलना पड़ा,
और गिरते-गिरते कई बार सम्हलना पड़ा।

हारा हिम्मत; टूटा हौसला कई बार, बेशक!
“कुछ दूर और!” कह कर बस चलना पड़ा।

थक कर चूर; जब सोया कभी इत्मीनान से,
नींद आई नहीं पूरी रात; बस करवट बदलना पड़ा।

याद आती रही मां, बाप से दूर होना खलता रहा,
मत पूछो, अपनों से दूर हो कितना मचलना पड़ा।

और गिरते-गिरते कई बार सम्हलना पड़ा।

©Rudra Pratap Singh

मुझे घर बनाने घर से दूर निकालना पड़ा #घर #होली #Festival #Holi

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#OpenPoetry भूल जाने का हुनर मुझको सिखाते जाअो। जा रहे हो, तो सभी नक़्श मिटाते जाओ। चलो रस्मन ही सही, मुड़ के मुझे देख तो लो; तोड़ते तोड़ते ताल्लुक़ को निभाते जाओ। ©anonymous

#OpenPoetry  #OpenPoetry भूल जाने का हुनर मुझको सिखाते जाअो। 
जा रहे हो, तो सभी नक़्श मिटाते जाओ। 
चलो रस्मन ही सही, मुड़ के मुझे देख तो लो;
तोड़ते तोड़ते ताल्लुक़ को निभाते जाओ।

                  ©anonymous

#OpenPoetry

11 Love

#OpenPoetry एक अरसा गुज़रा, उसके गुज़रे हुए, जो गुज़रा वो जमाना अजीब था। लाख कोशिशें की उसको भूलने की, हर बार उसका याद आना अजीब था। बिन बोले कुछ उसका आना ज़िंदगी में, बिन कहे यूँ चले जाना अजीब था। मुड़ कर देखना उसका बार-बार, देख कर मुस्कराना अजीब था। © रुद्र प्रताप सिंह

#शायरी #OpenPoetry  #OpenPoetry एक अरसा गुज़रा, उसके गुज़रे हुए,
जो गुज़रा वो जमाना अजीब था।

लाख कोशिशें की उसको भूलने की,
हर बार उसका याद आना अजीब था।

बिन बोले कुछ उसका आना ज़िंदगी में,
बिन कहे यूँ चले जाना अजीब था।

मुड़ कर देखना उसका बार-बार,
देख कर मुस्कराना अजीब था।

© रुद्र प्रताप सिंह

#OpenPoetry

11 Love

तुम गंगाधर, तुम नीलकंठ तुम भोले-शंकर, शिव-शंभु। तुम महाकाल, तुम महा-रुद्र; तुम आदि, तुम्हीं हो अंत प्रभु। तुम कालजयी, तुम काल-पुरुष; तुम ही मेरे संसार, प्रभु। हो मानवता के पोषक तुम, हम सब के तारणहार, प्रभु। -रुद्र प्रताप सिंह

#शायरी  तुम गंगाधर, तुम नीलकंठ
तुम भोले-शंकर, शिव-शंभु।
तुम महाकाल, तुम महा-रुद्र;
तुम आदि, तुम्हीं हो अंत प्रभु।

तुम कालजयी, तुम काल-पुरुष;
तुम ही मेरे संसार, प्रभु। 
हो मानवता के पोषक तुम,
हम सब के तारणहार, प्रभु। 

-रुद्र प्रताप सिंह

तुम गंगाधर, तुम नीलकंठ तुम भोले-शंकर, शिव-शंभु। तुम महाकाल, तुम महा-रुद्र; तुम आदि, तुम्हीं हो अंत प्रभु। तुम कालजयी, तुम काल-पुरुष; तुम ही मेरे संसार, प्रभु। हो मानवता के पोषक तुम, हम सब के तारणहार, प्रभु। -रुद्र प्रताप सिंह

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अब मेरी कोई ज़िंदगी ही नहीं अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या

#शायरी  अब मेरी कोई ज़िंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या

अब मेरी कोई ज़िंदगी ही नहीं अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या

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