प्रदीप छंद।
जुल्मों की जंजीरें तोड़ो,खुला हुआ मैदान है।
गद्दारों को गोली मारो ,घर इनका शमशान है।।
लूट रहे जनता की दौलत, समझे अपने बाप की।
जनता भूखों मरती रोती, करें बुराई आप की।।
फँसी हुई है सबकी अब तो,आफत में ही जान है।
दया नहीं है इनके दिल में,सचमुच यह शैतान हैं।।
जुल्मों की जंजीरें......
धंधे सारे चौपट होते, मनमाने सब भाव हैं।
महँगाई भी बढ़ती जाती,सबकी डूबी नाव है।।
विद्यालय पर ताले लटके,शिक्षा का अपमान है।
भ्रष्ट हुए हैं कुछ गुरु जन भी,दुखी बड़ी सन्तान है।।
जुल्मों की जंजीरें......
फिल्मी बाला है अधनंगी, व्याभिचार में लिप्त है।
पालक मौन खड़े सब देखे,इनकी मति भी सुप्त है।।
वृद्धों की सुनता कब कोई, नहीं बचा सम्मान है।
शिक्षित हो कर भी सब देखो, बनते सब नादान है।।
जुल्मों की जंजीरें तोड़ो,खुला हुआ मैदान है।
गद्दारों को गोली मारो,घर इनका शमशान है।।
पंकज शर्मा"तरुण".
पिपलिया मंडी मध्यप्रदेश।
©Pankaj sharma Tarun
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